25.11.18

सेक्टर - 62

सुबह उम्मीद के साथ निकला ! बहुत सारी उम्मीद ! उतनी जितनी शाखों में पत्तियां नहीं होती ! उतनी जितना आकाश में तारें नहीं होते है ! उतनी उम्मीद जितना मुझे कभी ख़ुद से नहीं रही ! और इसी उम्मीद के सहारे दोपहर तक भटकता रहा ! तुम्हें ढूँढ़ता रहा ! दिल को ऐसे न जाने क्यूँ लगता रहा कि जैसे तुम अभी ख़ुद से ख़ुद ही आ जाओगे ! पर तुम कही नहीं थे !

फिर दिल ने अचानक कहा - तुम ख़ुद क्यूँ आवाज नहीं लगा लेते हो ? ! मैं ? ! मैं आवाज ही तो लगा रहा हूँ ! तुम्हें क्या दिखाई नहीं देता है ? तुम हमेशा क्यूँ उसी के ही साइड रहते हो ? मैंने दिल को डपट लगाई ! और  तुम्हें खोजता रहा !
जबकि मुझे पता था - तुम यहाँ नहीं रहते हो ! तुमने अपना घर कब का बदल लिया है ! और सच यह है कि मुझे पता तक नहीं तुम्हारा ठिकाना ! फिर भी मैं धूप में तुम्हारे पुराने घर के उसी नुक्कड़ पर घंटो खड़ा ताकता रहा कि - शायद तुम अभी यही से निकल कर आ जाओगी ! तुम फिर भी नहीं आई !

फिर उस पेड़ के नीचे जाके मैं बैठ गया ! जहाँ हम घंटो बैठा करते थे ! तुम कही नहीं थे ! तुम कही नहीं थे ! बेरूख़ी थी हवाओं में ! पेड़ भी छाया नहीं दे रहा था ! सब पक्षी गुमशुम थे ! सांस लेना मुश्किल हो रहा था ! मैंने काफी जदोजहद की ख़ुद से ! सूरज चला गया है ! साँझ हुई ....

- मनीष के.

[# लघु प्रेम कथा = लप्रेक] 

No comments:

Post a Comment