25.11.18

मेराज फैज़ाबादी की ग़ज़लें , नज्म और शेर

हिंदी की पत्रिका रचनाकार पर प्रकाशित

अनुभव के ताप पर पकाकर गज़ल कहना और लोगों के दिलों-दिमाग में सीधे उतर जाना कोई मेराज फैज़ाबादी से सीखे । कौन वह शख्स होगा जिसे मेराज फैज़ाबादी का शेर –

पढ़ाओं न रिश्तों की कोई किताब मुझे 
पढ़ी है बाप के चेहरे की झुर्रियां मैंने ।।
 
सुनकर उसकी आँखों में उसके पिता का चेहरा न उतर आये ।
फैजाबाद के छोटे से गाँव “कोला –शरीफ़ ” में जन्में मेराज फैज़ाबादी का वास्तविक नाम “मेराजुल हक़ ” इनके पिता “सिराजुल हक़” से मिला था । पर किसी को क्या पता था कि यह छोटा सा बालक पूरें विश्व में मेराज फैज़ाबादी बनकर फैज़ाबाद और भारत का नाम बुलंद करेगा । मेराजुल हक़ ने 1962 में लखनऊ विश्वविद्यालय से B.Sc की डिग्री हासिल की । इनके तीन गज़ल-संग्रह – नामूश , थोड़ा सा चन्दन और बेख्वाब साअते’ प्रकाशित हुए । भारत के साथ – साथ पूरें विश्व में जहा – जहा भी हिंदी-उर्दू बोली और सुनी जाती है । मेराज के शेर सुने और कहे गए । आपका इंतकाल नवम्बर 2013 में लखनऊ में हुआ 


शोर-शराबें से और मंचीय-राजनीति दूर रहकर भी मेराज फैज़ाबादी अपनी सादगी और बेहतरीन , यथार्थ की धरातल पर रची गयी नज्मों , शेर और कविताओं के बदौलत पूरें विश्व में सुने गए । मेराज फैज़ाबादी की शायरी , शेर और नज्मों में कोई जन्नत या तिलिस्म वाली बातें नहीं है
। इन्होनें ऱोजमर्रा की जरूरतों और एक आम इंसान के दर्द , तड़प और उसके साथ होने वाली नाइंसाफी को अपनी शायरी का हिस्सा बनाया । यही जुबान मेराज को बाकी शायरों और कवियों से अलग कर देती है । पारिवारिक जरूरतों पर आपकी नज्म जिसमे पाकीजगी के साथ गाँव की मिट्टी की सौधेपन की महक भी है –
मुझको थकने नहीं देता ये जरूरत का पहाड़ 
मेरे बच्चे मुझे बूढ़ा नहीं होने देते ।।
आज भी गाँव में कुछ कच्चे मकानों वाले 
घर में हम-साए के फांका नहीं होने देते ।।
कुछ तो हम खुद भी नहीं चाहते शौहरत अपनी 
और कुछ लोग भी ऐसा नहीं होने देते ।।
 
मेराज ने आज़ादी का सपना साकार होता देखा । पर जब आम आदमी इस लोकतंत्र में भी भूखा सोये । तब आपने लिखा –
बढ़ गया था प्यास का अहसास दरिया देखकर 
हम पलट आये मगर पानी को प्यासा देखकर ।।
खुदखुशी लिखी थी एक बेवा के चेहरे पर मगर 
फिर वो जिन्दा हो गयी बच्चे बिलखता देखकर ।।
 
आज़ादी के बाद देश के रहनुमा सिर्फ सरकर बनाने तक ही रह गये । देश कही पीछे छूट गया । तब आपने लिखा  –
किसको यह फ़िक्र है कि कबीले का क्या हुआ 
सब इस बार लड़ रहे है कि सरदार कौन है ।।
सब कश्तियाँ जला के चलें साहिलों से हम 
अब तुम से क्या बताये की उस पार कौन है ।।
ये फैसलें तो शायद वक़्त भी न कर सके 
सच कौन बोलता है , अदाकार कौन है ।।
 
और देश की दुर्दशा पर लिखा –
एक टूटी हुई जंजीर की फ़रियाद है हम 
और दुनिया समझती है की आजाद है हम ।।
हमको इस दौर की तारीख ने दिया क्या ‘मेराज’ 
कल भी बर्बाद थे आज भी बर्बाद है हम ।।
 
देश जब दंगों में झुलसा मेराज ने लिखा –
हमारी नफरतों की आग में सब कुछ न जल जाये 
कि इस बस्ती में हम दोनों को आइन्दा भी रहना है ।।
मना ले कुछ देर जश्न दुश्मन की तबाही का 
फिर उसके बाद सारी उम्र शर्मिंदा भी रहना है ।।
 
शायद गाँधी के अहिंसावादी मूल्यों पर इस से बेहतर कोई शेर नहीं कहा गया है ।
समाज की बुराइयों को देखने का मेराज का नजरिया अलग ढंग का था –
बेख़ुदी में रेत के कितने समंदर पी गया 
प्यास भी क्या शय है मै घबरा के पत्थर पी गया 
अब तुम्हे क्या दे सकूँगा दोस्तों , चरागरों 
जिस्म का सारा लहू मेरा मुकद्दर पी गया 
मयकदे में किसने कितनी पी ख़ुदा जाने मगर 
मयकदा तो मेरी बस्ती के कई घर पी गया 
 
और इन्हीं में बिखरतें रिश्तों पर लिखा –
चिराग अपने थकन की कोई सफाई न दे 
वो तीरगी है की ख़्वाब तक दिखाई न दे ।।
बहुत सताते है रिश्तें जो जाते है 
ख़ुदा किसी को तौफ़ीके आशनाई न दे ।।
मै करीब आने की कोशिश तो करूं लेकिन 
हमारे बीच कोई फ़ासला दिखायी तो दे ।।
मै तेरे दर से उठकर चला तो जाऊं मगर 
तेरी गली से कोई रास्ता दिखाई तो दे ।।
 
पर शायर सिर्फ वह नहीं जो नाउम्मीदी की बातें करे । इसीलिए मेराज लिखते है –

आसमाँ जलती जमीं पर नहीं आने वाला
अब यहाँ कोई पयंबर नहीं आने वाला
प्यास कहती है चलो रेत निचोड़ी जाए
अपने हिस्सें में समंदर नही आने वाला
अपने काबे की हिफ़ाज़त तुम्हें खुद करनी है
अब अबाबीलों का लश्कर नहीं आने वाला 

और ख़ुदा से बात करते हुए आपने लिखा की –
ज़िन्दगी दी है तो जीने का हुनर भी देना 
पाँव बख्शें है तो तौफ़ीक- –सफ़र भी देना ।।
गुफ्तुगू तू ने सिखाई है की मै गूंगा था 
अब मै बोलूँगा तो बातों में असर भी देना ।।
मै तो इस खाना-बदहोशी में ख़ुश हूँ लेकिन 
अगली नस्लें न भटके उन्हें घर भी देना ।।
जुल्म और सब्र का यह खेल मुक्कमल हो 
उस को खंजर जो दिया है मुझे सर भी देना ।। ”
 
मेराज ने इश्क़ पर जो नज्में लिखी उन्हें आप अपने महबूब और ख़ुदा दोनों की इबादत में पढ़ सकते हो । मसलन एक ख़ूबसूरत नज्म जिसे आप हमेशा पढ़ते थे -
मेरे अल्फाज का यह शीश –महल सच हो जाये 
मै तेरा जिक्र करूं मेरी गजल सच हो जाये ।।
ज़िन्दगी भर तो कोई झूठ जीया है मैंने 
तू जो आ जाये तो यह आख़िरी पल सच हो जाये ।।
 
महबूब की याद में आपने लिखा -
“ तेरे बारे में जब सोचा नहीं था 
मै तन्हा था मगर इतना नहीं था ।।
तेरी तस्वीर से करता था बातें 
मेरे कमरें में आइना नहीं था ।।
समन्दर ने मुझे प्यासा ही रखा 
मै जब सहरा में था प्यास नहीं था ।।
मनाने रूठने के खेल में हम 
बिछड़ जायेंगे हम ये सोचा नहीं था ।।
 
और आज की मोहब्बत पर आपने लिखा –
अगले जन्म में मिलने की कोई आस भी न रहे 
जो सूख जाये दरिया तो फिर प्यास भी न रहे ।।
वो जो कहते थे कि जीना मोहाल है तुम बिन 
बिछड़ के हमसे दो दिन तक उदास भी न रहे ।।
हमें यह फ़िक्र कि हम आबरू बचा ले जाये अपनी 
हवा की जिद की बदन पर कोई लिबास भी न रहे ।।
नया-निज़ाम , नया बाग़ , नया माली 
मगर यह क्या की फ़लों में मिठास ही न रहे ।।
 
ऐसी न जाने कितनी गजलें और नज्म जो लोगों को दीवाना बना देती है । मेराज की एक गजल आज के माहौल पर कितना सटीक बैठती है देखिये  –
रिश्तों की कह्कंशा सरे-बाजार बेचकर 
घर तो बचा लिया दरों-दीवार बेचकर ।।
वो शख्स शूरमा है मगर बाप भी तो है 
रोटी ख़रीद लाया है तलवार बेचकर ।।
शौहरत की भूख़ हमको कहा लेकर आ गयी 
हम मोहतरम हुए भी तो किरदार बेचकर ।।
मुद्दतों जिस कलम ने बोये थे इन्कलाब 
अब पेट पालता है वह अखबार बेचकर ।।
 
खैर – अपने महबूब शायर मेराज फैज़ाबादी की की याद में लिखा मेरा यह लेख उन सभी लोगों को समर्पित है जो आम आदमी की तरह जीते है  और हमेशा ज़मीन से जुड़े रहतें है 
आखिर में मेराज फैज़ाबादी के ही शब्दों में –
मोहब्बत को मेरी पहचान कर दे 
मेरे मौला मुझे इंसान कर दे ।।
मोह्ब्बत , प्यार , रिश्तें , भाईचारा 
हमारे दिल को हिन्दुस्तान कर दे ।।

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नोट - भाषा, व्याकरण और वर्तनी में गलती हो तो सौ मर्तबा माफ़ी ! मुझे अच्छी हिंदी/उर्दू नहीं आती है और मैंने पढ़ी भी नहीं है ! और एक बात यह सारी गज़लें बस अपने यादाश्त पर लिखी है जो मैंने कही कभी सुनी होगी कही से देख कर नहीं ! तो भाषा में गलती बहुत हो सकती है !

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रचनाकार पर इसे पढ़कर अबतक तकरीबन सौ से ज्यादा लोगों ने फ़ोन किया ! तो उनकी पसंद की कुछ और मेराज जी गज़लें यहाँ मै लिख रहा हूँ, जो - जो मुझे याद थी  -

एक - 

पाबराहना रेतगारों में चलाये जायेंगे
ऐसा लगता है की हम फ़िर आजमायें जायेंगे
इन क़बीलों में बहुत सच बोलने का है चलन
यह क़बीलें कत्लगाहों में बसायें जायेंगे
जाने कितनी चौखटों से चुन के यह नन्हें चिराग़
महफ़िलो में ऐश्गाहों में सजाएँ जायेंगे
मौत तो एक वक़्त ए आराम है यह ज़िन्दगी
एक दिन कब्रों से हम जिंदा उठायें जायेंगे

दो - 

तू पुकारेगा तो ए – साहिल ए हरम आयेंगे
अब अबाबीलों के अंदाज़ में हम आयेंगे
लेके हम आयेंगे हाथों में सदाक़त के अलम
यह अलग बात की तादाद में कम आयेंगे
रेत पर अपने लहूँ से हमें लिखनी है ग़ज़ल
अपने हिस्सें में कहाँ लहूँ कलम आयेंगे
आ ही जायेगा कोई मर्द – ए – बिराई शिफत
जब भी अल्ल्लाह के घर में यह सनम आयेंगे 

- मेराज फैज़ाबादी


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