8.12.24

आखिरी ख़त

जेठ की तपिश में झुलसी हुयी किसी शाख़ जैसी जिन्दगी को जब उसने छुआ
उसने कहा - मोहब्बत है 
फ़रेब या दावा ?

उसने कहा - वादा है - रहेगी मोहब्बत - ता क़यामत तक - यूँ ही - बिना किसी स्वारथ के 
दुवाएं बरसी 

यकायक एक जब उसे  लगा शाख़ हरी हो गयी और उसकी हद से 'शायद' दूर
उसकी ऐसी ज़द - कि आँखों के सारे ख़्वाब नोंच लिए 
बे-पैरहन किया सारे भ्रम को 

फ़रेबी वही है - जिसने उलझी डोर से ख़ुद को अलग किया ?
उसकी याद और बद्दुवाएं सम्हाली नहीं जा रही है !

© मनीष के.


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