जेठ की तपिश में झुलसी हुयी किसी शाख़ जैसी जिन्दगी को जब उसने छुआ
उसने कहा - मोहब्बत है
फ़रेब या दावा ?
उसने कहा - मोहब्बत है
फ़रेब या दावा ?
उसने कहा - वादा है - रहेगी मोहब्बत - ता क़यामत तक - यूँ ही - बिना किसी स्वारथ के
दुवाएं बरसी
दुवाएं बरसी
यकायक एक जब उसे लगा शाख़ हरी हो गयी और उसकी हद से 'शायद' दूर
उसकी ऐसी ज़द - कि आँखों के सारे ख़्वाब नोंच लिए
बे-पैरहन किया सारे भ्रम को
उसकी ऐसी ज़द - कि आँखों के सारे ख़्वाब नोंच लिए
बे-पैरहन किया सारे भ्रम को
फ़रेबी वही है - जिसने उलझी डोर से ख़ुद को अलग किया ?
उसकी याद और बद्दुवाएं सम्हाली नहीं जा रही है !
© मनीष के.
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