14.5.24

विलाप

वह सब ख़त्म नहीं हो रहा है

जो शुरू नहीं होना चाहिए था

प्रमाण झूठला दिए गए है

दुःख/ग्लानि/ या पीड़ा में चीखती आवाज़ों के लिए-

कोई एक सटीक शब्द कह पाना मुश्किल है

मुश्किल है – एक मुकम्मल शख्स का मिलना

जो आपकी कविता अपने रंग से न पढ़े

या कम से कम बचाए रखे – ‘मूलभावना’

 

चीख़ती रातों में ज़बरदस्ती के सन्नाटे ठूँसे गए है

जैसे उसकी चश्म-ए-पुर-नम के नीचे तक फ़ैली झूठी हँसी

अपने ‘स्व’ की हत्या मानो रोज़मर्रा का काम है

और हार ही अब जीवन का सच/आनन्द है

अपनों के बीच होता हूँ – मानो निहत्था अभिमन्यु

 

कितनी सारी चीज़ों के तर्क या वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है

मसलन किसको था ज्यादा प्रेम या किसको है ज्यादा दुःख  

वह जो नहीं कहा गया था – बिना किसी तर्क के साथ – वह क्षण सबसे विशुद्ध था 

वह फूल, एक किताब, और मंदिर का प्रसाद/ बिना किसी वाजिब वजह के

 

फ़रेबी के मुहँ से भी  आँखों में हरापन और प्रेम के साथ कहा गया वाक्य – मुझे तुमसे प्रेम है !

दुनिया का सबसे सुन्दर वाक्य है ! 

कितने लोग अभागे है बस यह सुनने भर को 

बाकी सारे भाव अदला-बदली या दैनिक काम है / या थोपा हुआ जीवन 

और है – आँखों  में रेत भरकर प्रेम पाना – विशुद्ध बनियावाद


वह संपन्न नहीं है – हँसी से / प्रेम से / कविता से / कला से  और अपनेपन से

उससे किसी ‘विशेषाधिकार’ किए उम्मीद बेमानी है

 हम चुनने को कुछ भी चुन सकते है/ हम करने को कुछ भी कर सकते है

जहाँ यह एकाधिकार नहीं है – वह सम्बन्ध बेमानी है  

 

सुख – दुःख / नैतिकता – अनैतिकता / प्रेम – वैमन्यस

सब कुछ सीने में धँसता जा रहा है

प्रपंच के पत्थरों से फूटें माथें का खून

आँखों में रिसता जा रहा है

अँधेरा शहर और हमें पाट रहा है

शहर नदियों को                    


'सच' और काल से परे है शायद ईश्वर / और प्रेम में मुस्कुरातें हम !

 

-        मनीष के.  



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