22.9.24

अलहदा

उन दिनों जब धूप, हरापन और सुकून का अकाल पड़ा था 
वह 'यूँ' मिली जैसे - सावन में हो जाती है पृथ्वी 
जैसे वर्षों के सूखेपन को किसी ने भिगो दिया हो 
वह सुकून बन बरसी जैसे 'हथिया'
जैसे सहराओं में दिखा कोई 'पारिजात'


उसका मिलना साधारण था 
उसका होना साधारण है  
बिना किसी अतिरिक्त भार के   
उसका होना जैसे साँसों का सयंमित हो जाना 
चेहरे की हँसी का माथे में मिल जाना 

कोई रंग ऐसा नहीं है जो उसपर मुकाम न पाए 
कोई ख़वाब ऐसे नहीं जो उसपर हसी न हो जाये 
कोई दर्द, दवा या मर्ज नहीं जो उसकी तरबीयत में अच्छी न लगी 
कोई बात ऐसी नहीं जो उसने कही - और सच्ची  न लगी 

जिंदगी में रंग न हो तब भी 
और रंग खुशनुमा हो तब भी 
हमारे अर्थ पूरे नहीं हुए 
हम रोज़मर्रा के नहीं हुए 
पर परिधि के पार 
सबसे अलहदा हुए 
जिसकी बातों से आँसू हंस दे 
जिसको सुन के गम शेखियां-बघारे

एक सफ़ेद रंग का भाग्य
या कोई नक्षत्र 
तारों का दूर जाना 
समय से परे कुछ नहीं है
 
परे नहीं है समय से
कोई कहानी , कोई पात्र 
उसकी कहानी में एक पन्ना होना 
या बस कोई 'फुटनोट' 
या महज रेखाँकित बदला गया एक नाम 
जो बदले आयामों में तलाश लेंगे नए मानी 
 
पर है समय से परे - 
वह और उसका अपनापन 

सनद रहे - कविता और प्रेम का कोई अंत नहीं होता है !



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