यह पूरा दिन ठीक वैसे बीत गया,
जैसे पिछले कई सालों से बीत रहा था।
दो-चार औपचारिक शुभकामनाएँ,
और ढेर सारा झूठ—
बीच में पसरा हुआ उदासियों का सूनापन।
जैसे पिछले कई सालों से बीत रहा था।
दो-चार औपचारिक शुभकामनाएँ,
और ढेर सारा झूठ—
बीच में पसरा हुआ उदासियों का सूनापन।
एक स्याह अँधेरा
मुँह फैलाए
मुझे निगल जाने को तैयार खड़ा है
बदल गए हैं सब—
जो कभी कहने को अपने थे,
फ़क़त सिर्फ़ अपने।
दिल भी, धरती की तरह
बस अपनी दिनचर्या निभा रहा है
पास बचा है अब बस—
अँधेरा, सूनापन,
और शुष्क होती जा रही यादें।
धीरे-धीरे
दुनिया को बाज़ार लील जाएगा,
और तुम्हारी यादें—
मुझे।
-मनीष के.
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