वह क्या था जो चाहिए था—
और वह क्या है जो हमेशा के लिए खो गया?
और वह क्या है
जो हम सच में पाना चाहते हैं?
perfect-fit लिबास जो instagram-able हो,
या हमारे भरे-बिखरे कमरे में
से कोई एक चीज़,
जो शायद हम ढूँढ नहीं पा रहे हैं!
भीड़ में खड़े होकर भी
या अकेले कमरे में बैठकर भी,
लगातार स्क्रोल मशीन बने
हम मोबाइल में क्या खोज रहे हैं?
उँगलियाँ ऊपर-नीचे करती रहती हैं,
मानो किसी दिन
स्क्रीन के आख़िरी सिरे पर
कोई उत्तर मिल जाएगा।
क्या वह महँगा सोफ़ा, घड़ी या फ़ोन
जो कार्ट में added है,
क्या वह हमारा खालीपन भर देगा?
जो नहीं मिला, वही सबसे ज़्यादा चाहिए,
और वही हम सबको चाहिए।
एकदम same imagination है,
या जबरन करी जा रही है।
कोई कल्पना, कोई प्रेम,
या फिर वही जीवन
जो हमेशा किसी और के पास
अधिक सुंदर लगता है।
सिग्मंड फ़्रॉयड ने कहा था—
मनुष्य का वर्तमान
उसके बचपन का विस्तार होता है।
love, fear, attraction, jealousy—
सब कुछ वहीं आकार लेता है,
जहाँ पहली बार
हमने स्वयं को असुरक्षित पाया था।
तो सवाल यह नहीं कि
बचपन कैसा था।
बल्कि यह है कि
क्या हम जीवन भर
उसी डर को छुपाने के लिए
जीते रहते हैं?
जैसे—
सबसे पहली बार
झूठ कब बोला?
प्रेम :
प्रेम शायद इसलिए इतना तीव्र होता है,
क्योंकि वह उस पुराने अकेलेपन पर
पट्टी बाँधने की कोशिश करता है।
और जब प्रेम टूटता है,
तो वह केवल एक संबंध नहीं तोड़ता—
वह बचपन की सारी असुरक्षाओं को
फिर से जगा देता है।
ऊब :
कामू ने कहा था—
मनुष्य का सबसे बड़ा संघर्ष
जीवन की निरर्थकता से है।
तो क्या आज
हम सब अपने दुःख से कम,
बल्कि अपनी-अपनी ऊब से
ज़्यादा डर रहे हैं?
एक पल के लिए,
जब यही ऊब
और वही पिछला डर
हमें घेरता है,
तो मन करता है—
जलती आग में
एक खेल हो जाए,
फिर धरती में
ज़िंदा दफ़न हो जाए,
या कहीं—
कैसे भी—
नदी से लेकर
चलती ट्रेन के दरवाज़े तक,
या सबसे ऊपरी छतों तक।
तो क्या यह
बस ख़ुद से भाग जाना है?
तो क्या हम
ख़ुद से ज़्यादा निराश हैं?
हमने ख़ुद पर ज़्यादा ज़ुल्म किए हैं,
या किसी और ने?
नीत्शे ने चेतावनी दी—
जब समाज
केवल सुविधा
और नैतिकता के नाटक पर जिएगा,
तो मनुष्य
भीतर से खाली हो जाएगा।
अब हर तरफ़ डर है।
विश्वास एक जोखिम बन चुका है।
ईमानदारी—एक कमजोरी।
और प्रेम—
कोई गूलर का फूल,
जो होता होगा,
पर दिखता नहीं।
और फिर उसने कहा—
“मैं शादी को
प्रेम से बाँधती नहीं हूँ।”
और फिर
प्रेम में टूटे लोगों को
न मुक्ति है—
न मौत
(कोई भ्रम न पाले)।
कोई मंदिर, मस्जिद या गुरुद्वारा नहीं,
न कोई पंडित, न मुल्ला।
धीरे-धीरे
आँखों की सारी बीनाई
ख़त्म हो जाएगी।
और कागा ने अरज मान के
अगर आँख छोड़ भी दी,
तो वह
न आएगा
जो आने वाला था।
धोखा:
हम सब
किसी न किसी को
धोखा दे रहे हैं—
और शायद
सबसे पहले
अपने आप को?
नहीं तो
जिन सिद्धांतों के लिए
हम लड़ने को तैयार थे,
वे आज
ऐसे क्यों
रफ़ा-दफ़ा किए जा रहे हैं?
झूठी सहमतियाँ और सभ्यता का ढोंग
हम हँसते हैं,
पर हँसी झूठी है।
हम सहमत होते हैं,
पर सहमति में
आत्मा नहीं होती।
औपचारिक सहमतियाँ—
“हाँ-हाँ सर”,
“कोई दिक्कत नहीं।”
और फिर वही आदत—
जब तुमने खाया नहीं होता
और झूठ बोलते फिरते हो
कि तुम खा चुके हो।
यह इस सभ्यता का ढोंग है—
जबकि तुम
दर्द से चीखकर
असलियत कह देना चाहते हो।
दो दिशाएँ:
एक दूर चमकता तारा—
जिसे “वह” देख रही है,
जो उम्मीदों से
थक चुकी है।
तारे
आँसू पोंछने
कब आते हैं?
दूसरी ओर कोई,
जो दूर जाती सड़क को देखता है।
वह किसी बड़े, घने जंगल में—
जो पहाड़ों के एकदम पास हो—
गायब हो जाना चाहता है।
दोनों के तरीके
अलग-अलग हैं,
और पीड़ा—
एक।
या यूँ कह लो,
सबके अपने-अपने तरीके हैं!
उपनिषद कहते हैं—
“कामना से ही
दुःख उत्पन्न होता है।”
बुद्ध ने कहा—
तृष्णा ही
समस्त क्लेशों की
जड़ है।
पर हम
न इच्छा छोड़ सकते हैं,
न उसके बिना
जी सकते हैं।
अमरबेल:
हम सब
धीरे-धीरे
इन्हीं भ्रमों में
लिपटते जा रहे हैं—
जहाँ सफलता,
प्रेम,
पहचान,
प्रतिष्ठा—
सब खोखली होगी।
और यही खोखलापन
हम सबको
एक दिन ढक देगा,
जैसे कोई अमरबेल
अपने आप फैल रही हो,
या फिर
किसी वीरान होती
विरासत पर
उगी घास।
© मनीष के.
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