23.12.21

वापस लौटा दो ?

नदी अगर वापस मांग ले – अपना सारा पानी या फिर जंगल अपनी हवाएं खेत वापस मांगने लगे अपनी सारी फ़सलें नन्हें बच्चे अपनी किलकारियाँ प्रेमी चुपके से दिए गए आलिंगन माथे पर दिए गए चुम्बन मांग ले गर प्रेमिकाएं
माँ वापस करने को कहे – आधी रोटी के बदले में दी गयी साबुत रोटी पिता मांगने लगे बचपन के सारे खिलौने दोस्त अपना साथ वापस माँग ले सूरज सारी किरणें
या ‘महादेव’ वापस करने को कहे डमरू से व्याकरण और व्याकरण हमसे हमारी भाषाएँ भाषाएँ वापस करने को कहे सारी रचनाएँ क्या हम कुछ भी वापस लौटा पाएंगे ?
वापस लौटने का कोई नियम नहीं है ज़िंदगी में कोई आलिंगन – चुम्बन – प्रेम - साथ – सिसकी वापस नहीं लौटाएं जा सकते है यह पर्वतों से ऊँची अपनी नाक के खातिर – बस सब वापस करने को मत कहो किसी से ज़िंदगी व्यापार से बढ़कर है और सब कुछ ‘बाइनरी’ नहीं है
हम असमर्थ है – वापस लौटा पाने में वक़्त से बढ़ते है हम / भरते है जख्म और सब बढ़ जाता है यही समय है और यही समय का सच जिसमे हम कुछ भी लौटा नहीं सकते है ! © मनीष




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