25.8.23

सब कश्तियाँ जला के चलें साहिलों से हम ...

एक बनी हुई तस्वीर के तमाम खाचों में पहले से निर्धारित किये हुए 'रंग' भरने को हम चतुराई/समझदारी कह रहे है ! खांचे निर्धारित है, रंग जहाँ लाल रंगना  है वही रंगना  है ! मजाल की सफ़ेद या बैगनी डाला जाए !

बीसेक शब्दों के इर्द-गिर्द पूरा जीवन है पैसा , घर, ..... ! और उसपर गुरूर ऐसा की मानो 'अमरत्व झूलता है इनमे' ! दुःख भी निर्धारित है, दुखों पर दुखी होने की तीव्रता भी ! ख़ुशी भी,और उस पर खुश होने का 'exact amount' भी पहले से प्लान किया है ! सब कुछ करीने से 'fabricated' है ! जैसे यही जीवन है, इसके इतर कुछ नहीं है !

मानो - 

'हम-तुम पास-पास बसें हुए दो शहर हो
या नदी पर बने लकड़ी के पुल
या शायद जंगल में उगे दो बड़े छायादार पेड़
या साथ में टूटकर गिरे दो बड़े पहाड़'

और फिर फैला हुआ सन्नाटा है ! जो चीख-चीख कर कह रहा है, गुनाह है - रात को रात कहना है ! ऐसा लगता है सब कुछ जल रहा है - सपने, नींद , आँखे, रात, सुबह और प्रेम !

एक धूप का कोई टुकड़ा तमाम अंधेरों के लिए परेशानी का सबब है ! जो न जाने कहा से आ गया बंद-कोठरी में ! 

हम मिलेंगे जैसे किरणें, नदियों में गिरती है ! जैसे उग आती है 'घास' न चाहते हुए और बंजर दीवाल को हरा कर देती है, सब कुछ जंगल सा हरा  !

नहीं गायेंगे पहले से बने गीत / राग , नहीं जायेंगे उस रास्ते जहाँ बासीपन के सिवा कुछ भी नहीं !

तुम्हारे शहर के तरह  इन्तजार में है !

- मनीष के.

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