12.2.24

हँसने के मौजूं पे रोये जा रहे है

(एक)
इब्न-ए-इंशा का शेर है - 
फ़र्ज़ करो हम अहल-ए-वफ़ा हों, फ़र्ज़ करो दीवाने हों 
फ़र्ज़ करो ये दोनों बातें झूटी हों अफ़्साने हों 

(दो)
एक कल्पकथा सुनेंगे ? एक सूखी नदियों का जंगल है ! एक मर्सिया बज रहा है जिसे 'तीन ताल' में लयबद्ध  कहा जा रहा है ! 
एक छाया है जिसके पेशानी से खून रिस रहा है !  हाथ में एक बड़ा सा 'Teddy' है  ! उसका चश्मा costly और चमकीला है ! 
एक चित्र है जिसकी मेरुदंड में ज़रूरत से ज्यादा लचक है ! उसकी भाषा, जुबान उधार की है पर चश्मा उसका भी काफी costly है ! 
फ़र्क करना मुश्किल है कौन ज्यादा 'जड़' है !  बंजर में 'ठूठ' जैसे सूखे खड़े है ! न स्वर है , न संगीत, न कला, न व्यवहार ! Biologically जाने दे तो गधे और आप के सुर/कला और व्यवहार की समझ  एक जैसे होगी ! 
हम सरपट उस तरफ़ दौड़ रहे है जहाँ रेत का जंगल है ! उसकी आँखों में आँसू है ! जो अथाह रेत के लिये काफी नहीं है ! 
रेत बढ़ती जा रही है ! नदियों में, घरों में, रिश्तों में ! हम सबके अपने अन्दर - आदमी के भरोसे में ! चलो शर्त कि कौन कितना रेतीला हो सकता है !

वह गए-गुजरें ज़माने की बातें थी - जिसमे खिड़कियों से झांकता था प्रेम ! नीम का वह पेड़ जहाँ बहाने से कोई टकरा जाता था ! कोई ले आये फूल बिना किसी इजहार या अहसान के ! उसको कोई और बद्दुआ न दे वह दिल से सोचने का काम लेता है  ! 

(तीन)
तहजीब  हाफी का एक शेर है -
वैसे क्या घटिया सी शय है यह तमन्ना का फ़रेब
आप जैसे को भी हम जैसे तरस जाते है !

शब्बा ख़ैर | © मनीष के. 

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