(एक)
इब्न-ए-इंशा का शेर है -
फ़र्ज़ करो हम अहल-ए-वफ़ा हों, फ़र्ज़ करो दीवाने हों
फ़र्ज़ करो ये दोनों बातें झूटी हों अफ़्साने हों
इब्न-ए-इंशा का शेर है -
फ़र्ज़ करो हम अहल-ए-वफ़ा हों, फ़र्ज़ करो दीवाने हों
फ़र्ज़ करो ये दोनों बातें झूटी हों अफ़्साने हों
(दो)
एक कल्पकथा सुनेंगे ? एक सूखी नदियों का जंगल है ! एक मर्सिया बज रहा है जिसे 'तीन ताल' में लयबद्ध कहा जा रहा है !
एक छाया है जिसके पेशानी से खून रिस रहा है ! हाथ में एक बड़ा सा 'Teddy' है ! उसका चश्मा costly और चमकीला है !
एक चित्र है जिसकी मेरुदंड में ज़रूरत से ज्यादा लचक है ! उसकी भाषा, जुबान उधार की है पर चश्मा उसका भी काफी costly है !
फ़र्क करना मुश्किल है कौन ज्यादा 'जड़' है ! बंजर में 'ठूठ' जैसे सूखे खड़े है ! न स्वर है , न संगीत, न कला, न व्यवहार ! Biologically जाने दे तो गधे और आप के सुर/कला और व्यवहार की समझ एक जैसे होगी !
हम सरपट उस तरफ़ दौड़ रहे है जहाँ रेत का जंगल है ! उसकी आँखों में आँसू है ! जो अथाह रेत के लिये काफी नहीं है !
रेत बढ़ती जा रही है ! नदियों में, घरों में, रिश्तों में ! हम सबके अपने अन्दर - आदमी के भरोसे में ! चलो शर्त कि कौन कितना रेतीला हो सकता है !
वह गए-गुजरें ज़माने की बातें थी - जिसमे खिड़कियों से झांकता था प्रेम ! नीम का वह पेड़ जहाँ बहाने से कोई टकरा जाता था ! कोई ले आये फूल बिना किसी इजहार या अहसान के ! उसको कोई और बद्दुआ न दे वह दिल से सोचने का काम लेता है !
(तीन)
तहजीब हाफी का एक शेर है -
वैसे क्या घटिया सी शय है यह तमन्ना का फ़रेब
आप जैसे को भी हम जैसे तरस जाते है !
तहजीब हाफी का एक शेर है -
वैसे क्या घटिया सी शय है यह तमन्ना का फ़रेब
आप जैसे को भी हम जैसे तरस जाते है !
शब्बा ख़ैर | © मनीष के.
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