किसी भी कहानी का अंत वैसा नहीं लिखा गया
जैसे सोचा था / चाहिए था
ठीक उसके उलट हुआ
जैसे सोचा था / चाहिए था
ठीक उसके उलट हुआ
कहानी - जो दोस्तों के साथ लिखनी शुरू की
उन्हें रोज़मर्रा की जिंदगी खा गयी
कहानी - जो प्रेम कहानी कही जा सकती थी
क्रमशः - कौन जाति ? कितना पैसा (हिंदीभाषियों के लिए 'Package') ? पुश्तैनी जायदाद ? कुनबा कौन सा ?
नाक के दाग (जो शायद तानाशाहों के जुल्म से भी ज्यादा है ) या ऐसी तल्ख़ बातें जो शायद आदिमानव भी कहने से बचे - जैसे शब्दों के आगे बढ़ी ही नहीं
कहानी - जो कविता की है
वह सूखी हुयी नदी सी होती जा रही है
जो गुजरें दिन में चुराए हुए लम्हों में बनती है
और समन्दर में उठी गुमनाम लहर सी खो जाती है
कहानी - तुम
जिसके लिए 'भावना' और भेलपूरी समानार्थी शब्द है
जो अपने होने भर से दोज़ख की याद दिला दे
जैसे मेरे लिए प्रेत और प्रेम
कहानी - ज़िन्दगी
जैसे कुपढ़, ताकतवर और तुम्हारे लिए बस लंठई या कोई फूहड़ हँसी है
सनद रहे - कविता का कोई अंत नहीं है !
© मनीष के.
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