तुमसे अलग होकर इन दिनों तुम्हीं को खोज रहा हूँ, जैसे कोई प्यासा रेत में पानी तलाश रहा हो।
तुम्हारी वह नन्ही-सी हथेली, जिसके स्पर्श भर से पूरी दिल्ली ख़ूबसूरत लगने लगती थी।तुम्हें याद होगा, वह कालकाजी—मैजेंटा लाइन से वॉयलेट लाइन तक का पैदल रास्ता।
तुम्हारे बुलाने पर मैं अक्सर बहाना करता था—“इतना लंबा चलकर मेट्रो बदलकर कौन तुम्हारे पास आएगा?”
परसों बिना किसी बात या, जैसा तुम कहती थी, बिना किसी काम के मै कही नहीं जाता हूँ — वहाँ गया!
महसूस किया कि तुम, तुम्हारे कंधे पर छोटा बैग और तुम्हारे साथ-साथ चलने की वही आहट मेरे साथ थी।
परसों बिना किसी बात या, जैसा तुम कहती थी, बिना किसी काम के मै कही नहीं जाता हूँ — वहाँ गया!
महसूस किया कि तुम, तुम्हारे कंधे पर छोटा बैग और तुम्हारे साथ-साथ चलने की वही आहट मेरे साथ थी।
यह कोई पागलपन नहीं था, बल्कि पूरी सतर्कता के साथ—और बिना किसी काम के!
तुम्हारे साथ चले रास्तों पर, तुम्हारे बिना भी चलना अच्छा लगता है।
तुम्हारे साथ चले रास्तों पर, तुम्हारे बिना भी चलना अच्छा लगता है।
तुमने अपनी दोस्त को वह जापानी कहानी सुनाई थी—“गलत ट्रेन में बैठो, तो जितनी दूर जाओगे, लौटने में उतनी ही तकलीफ़ होगी।”
यह सोचते हुए भी, तुम्हारे साथ जिया हर पल अब भी अच्छा लगता है—तुमसे अलग होकर भी।
तुम्हारे संग जिया हर झूठ भी, किसी भी दुनियावी सच से कहीं ज़्यादा प्यारा है।
तुम्हारे संग जिया हर झूठ भी, किसी भी दुनियावी सच से कहीं ज़्यादा प्यारा है।
-मनीष के.
[#लघु प्रेम कथा = लप्रेक]
बहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteशुक्रिया हरीश !
Deleteसुंदर
ReplyDeleteशुक्रिया सुशील जी !
Deleteह्रदयस्पर्शी । अनुभूति का आनंद।
ReplyDeleteबेहद आभार नुपुर जी !
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