8.12.24

आखिरी ख़त

जेठ की तपिश में झुलसी हुयी किसी शाख़ जैसी जिन्दगी को जब उसने छुआ
उसने कहा - मोहब्बत है 
फ़रेब या दावा ?

उसने कहा - वादा है - रहेगी मोहब्बत - ता क़यामत तक - यूँ ही - बिना किसी स्वारथ के 
दुवाएं बरसी 

यकायक एक जब उसे  लगा शाख़ हरी हो गयी और उसकी हद से 'शायद' दूर
उसकी ऐसी ज़द - कि आँखों के सारे ख़्वाब नोंच लिए 
बे-पैरहन किया सारे भ्रम को 

फ़रेबी वही है - जिसने उलझी डोर से ख़ुद को अलग किया ?
उसकी याद और बद्दुवाएं सम्हाली नहीं जा रही है !

© मनीष के.


26.10.24

वफ़ा बनाम प्यार

वह सिर्फ़ प्यार में ही नहीं, रोज़मर्रा की ज़िंदगी में भी हर संभव तरीके से जाहिल थे! और प्यार में तो क्या कहना, माशाअल्लाह!

खैर, जैसे होशियार लोग कहते हैं, "अपनी कमज़ोरी को अपनी ताकत बनाओ," उन्होंने भी ऐसा ही किया।

हर एक चीज़ जो ख़ूबसूरत थी, मसलन - हँसी, कविता, और पेड़, उन्होंने शिद्दत से उसे तबाह किया!


हँसी के लिए कहा - "ज़िंदगी में थोड़ा सीरियस हो जाओ!" हँसी से ज्यादा ज़रूरी तो दिनचर्या हो गई!

कविता - "मुझे 'समझ' नहीं आती है!" समझ तो यह भी नहीं आता कि आप इमोशनली बेवकूफ और डम्प हैं!

और पेड़ को कहा, "किसी को इसकी ज़रूरत है?" हर गैर-ज़रूरी चीज़ के लिए सबसे पहला ज़ुल्म सिर्फ़ और सिर्फ़ पेड़ों पर हुआ है!


तो खैर - उन्होंने सीखा कि कैसे ज़रूरत और ज़िंदगी का ताना देकर आँखों से खून टपकाया जाए! शायद उतनी ज़रूरत थी भी नहीं।

वह आपकी बात, आपकी ज़रूरत, आपके सपनों और संघर्ष में नदारद रहेंगे, पर उनको आपकी कहानी में हिस्सा चाहिए।


वह सीख लेते हैं कि कैसे हर गैर-ज़रूरी चीज़ को ज़रूरी बनाकर आपको यह कहा जाए - "आप गैर-ज़िम्मेदार हैं!" उनका अपना फ्रेमवर्क है, और उसी में आपको जज करते रहेंगे!

और खैर, यह भी तो है - गलत जगह पर आप कितने भी सही हों, आपकी वैल्यू नहीं होगी!


सनद रहे - जाहिलों को मोहब्बत और ज़िंदगी सिखाई नहीं जा सकती है!


© मनीष के.

“From the Collection of Articles: 'Unpolished Opinions' ”


उनके अंदाज़-ए-करम

'वह' आते हैं जैसे कोई ठंडी हवा का झोंका हो! उनका मतलब 'वह' से है, कोई धर्म, जाति, लिंग या रंग-रूप से निर्धारण नहीं है! वह कोई भी हो सकता है!

तो हां, वह आते हैं और आते ही रहते हैं! आप उनको रोक नहीं पाएंगे! इतना हमदर्दी और प्यार लुटा देंगे कि आप कुछ कह नहीं पाएंगे!

और आप बेचारे, मोहब्बत के मारे, गम और खुशी में तरसे हुए लोग, जिन्हें भीख मांगने से भी थोड़ी तवज्जो नहीं मिली हो, वह सातवें आसमान के ऊपर पहुंच जाते हैं।


धीरे-धीरे, जो पहले कभी देखा नहीं था, उनका 'मतलब' आता है जैसे महंगे होटल में खाने पर लगा 'टैक्स'! फिर आप जितना भी थ्योरी लेकर बैठे रहो—कि आदमी से दिल से जुड़ना चाहिए न कि जरूरत से!

वह आपको खत्म कर देते हैं! आपकी सोच, आपकी हंसी, आपकी जिंदगी! वह वैताल की तरह आप पर लटके हुए आपकी आत्मा को खाते रहेंगे! अपना मतलब सिद्ध करने के लिए अपना उल्टा-सीधा ज्ञान पढ़ाएंगे,

और आप सब करेंगे! उनके लिए आप बस एक साधन हैं, जिसे किसी भी तरह से इस्तेमाल किया जा सकता है! आपके मुंह से खून निकल आए पर इनका मतलब खत्म नहीं होता! 

हर गुजरते दिन में आप सोचेंगे कि कभी यह आदमी सुधर जाएगा, पर मजाल है कि वह आपको छोड़ दे! 


सनद रहे—हर क्रूरता दिखाई नहीं देती है!

© मनीष के.


“From the Collection of Articles: 'Unpolished Opinions' 

22.9.24

अलहदा

उन दिनों जब धूप, हरापन और सुकून का अकाल पड़ा था 
वह 'यूँ' मिली जैसे - सावन में हो जाती है पृथ्वी 
जैसे वर्षों के सूखेपन को किसी ने भिगो दिया हो 
वह सुकून बन बरसी जैसे 'हथिया'
जैसे सहराओं में दिखा कोई 'पारिजात'


उसका मिलना साधारण था 
उसका होना साधारण है  
बिना किसी अतिरिक्त भार के   
उसका होना जैसे साँसों का सयंमित हो जाना 
चेहरे की हँसी का माथे में मिल जाना 

कोई रंग ऐसा नहीं है जो उसपर मुकाम न पाए 
कोई ख़वाब ऐसे नहीं जो उसपर हसी न हो जाये 
कोई दर्द, दवा या मर्ज नहीं जो उसकी तरबीयत में अच्छी न लगी 
कोई बात ऐसी नहीं जो उसने कही - और सच्ची  न लगी 

जिंदगी में रंग न हो तब भी 
और रंग खुशनुमा हो तब भी 
हमारे अर्थ पूरे नहीं हुए 
हम रोज़मर्रा के नहीं हुए 
पर परिधि के पार 
सबसे अलहदा हुए 
जिसकी बातों से आँसू हंस दे 
जिसको सुन के गम शेखियां-बघारे

एक सफ़ेद रंग का भाग्य
या कोई नक्षत्र 
तारों का दूर जाना 
समय से परे कुछ नहीं है
 
परे नहीं है समय से
कोई कहानी , कोई पात्र 
उसकी कहानी में एक पन्ना होना 
या बस कोई 'फुटनोट' 
या महज रेखाँकित बदला गया एक नाम 
जो बदले आयामों में तलाश लेंगे नए मानी 
 
पर है समय से परे - 
वह और उसका अपनापन 

सनद रहे - कविता और प्रेम का कोई अंत नहीं होता है !



14.5.24

विलाप

वह सब ख़त्म नहीं हो रहा है

जो शुरू नहीं होना चाहिए था

प्रमाण झूठला दिए गए है

दुःख/ग्लानि/ या पीड़ा में चीखती आवाज़ों के लिए-

कोई एक सटीक शब्द कह पाना मुश्किल है

मुश्किल है – एक मुकम्मल शख्स का मिलना

जो आपकी कविता अपने रंग से न पढ़े

या कम से कम बचाए रखे – ‘मूलभावना’

 

चीख़ती रातों में ज़बरदस्ती के सन्नाटे ठूँसे गए है

जैसे उसकी चश्म-ए-पुर-नम के नीचे तक फ़ैली झूठी हँसी

अपने ‘स्व’ की हत्या मानो रोज़मर्रा का काम है

और हार ही अब जीवन का सच/आनन्द है

अपनों के बीच होता हूँ – मानो निहत्था अभिमन्यु

 

कितनी सारी चीज़ों के तर्क या वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है

मसलन किसको था ज्यादा प्रेम या किसको है ज्यादा दुःख  

वह जो नहीं कहा गया था – बिना किसी तर्क के साथ – वह क्षण सबसे विशुद्ध था 

वह फूल, एक किताब, और मंदिर का प्रसाद/ बिना किसी वाजिब वजह के

 

फ़रेबी के मुहँ से भी  आँखों में हरापन और प्रेम के साथ कहा गया वाक्य – मुझे तुमसे प्रेम है !

दुनिया का सबसे सुन्दर वाक्य है ! 

कितने लोग अभागे है बस यह सुनने भर को 

बाकी सारे भाव अदला-बदली या दैनिक काम है / या थोपा हुआ जीवन 

और है – आँखों  में रेत भरकर प्रेम पाना – विशुद्ध बनियावाद


वह संपन्न नहीं है – हँसी से / प्रेम से / कविता से / कला से  और अपनेपन से

उससे किसी ‘विशेषाधिकार’ किए उम्मीद बेमानी है

 हम चुनने को कुछ भी चुन सकते है/ हम करने को कुछ भी कर सकते है

जहाँ यह एकाधिकार नहीं है – वह सम्बन्ध बेमानी है  

 

सुख – दुःख / नैतिकता – अनैतिकता / प्रेम – वैमन्यस

सब कुछ सीने में धँसता जा रहा है

प्रपंच के पत्थरों से फूटें माथें का खून

आँखों में रिसता जा रहा है

अँधेरा शहर और हमें पाट रहा है

शहर नदियों को                    


'सच' और काल से परे है शायद ईश्वर / और प्रेम में मुस्कुरातें हम !

 

-        मनीष के.